YOGIRAJ SHRI DEVRAHA BABA
YOGIRAJ DEVRAHA BABA
ब्रह्मर्षि श्री देवराहा बाबा का नाम लेते ही एक परा शक्ति मानस पटल को झकझोर कर निकल जाती है। उनका मानवेतर स्वरूप अलौकिक शान्ति प्रदान करता हुआ बरबस अपनी ओर खींचता था। गंगा हो अथवा यमुना या फिर सरयू का किनारा, उस पर एकान्त में बना हुआ मंच, उसी मंच पर विराजमान् एक दिव्य शक्ति जो अपनी यौगिक शक्ति से विश्व को आलोकित करती थी। लाखों लोगों की श्रद्धा से जुड़ी यह शक्ति जहाँ तक प्रकाश दे सकती थी वहां तक मानव कल्याण की भावना स्वतः जाग उठती थी। प्राणीमात्र एक हैं, आत्मा एक है। स्पर्शास्पर्श का निषेध, सात्त्विक वृत्ति पर बल, तामसी और राजसी वृत्ति से उत्पन्न विकारों को परिभाषित कर मानव स्वभाव का प्रच्छालन करने वाले समदर्शी, ईश्वरलीन देवराहा बाबा के दर्शन मात्र से उनके प्रति सहज आकर्षण पैदा हो जाता था। शास्त्रसम्मत तथ्य पर आधारित तर्कबुद्धि से प्रस्फुटित होने वाला ज्ञान का प्रवाह गंगा की पवित्र धारा की तरह योगिराज के मानस में प्रवाहित होता रहता था। इस ज्ञानगंगा की अलौकिक शक्ति का आनन्द भी वही ले सकता है; जो उनके सान्निध्य में रहकर उसमें वारम्बार डुबकी लगाये। वे एक परम दिव्य ज्योतिस्वरूप थे और उस ज्योति का सीधा सम्बन्ध ब्रह्म ज्योति से है। अखण्ड ब्रह्म ज्योति की भांति वह भी हमेशा से जलती रही है, जल रही है और जलती रहेगी। सिर्फ इसलिए कि भारत देश, भारतीय संस्कृति और भारतीय जनमानस में उस परम सत्ता का प्रकाश होता रहे समाज में जहां कहीं भी भटकाव आये उसे रास्ता दिखाने के लिए प्रकाश मिलता रहे। हिमालय की कन्दराओं में तथा अन्य विशिष्ट स्थानों पर लम्बी अवधि तक समाधि की स्थिति में रह कर उन्होंने ब्रह्मलीन अवस्था प्राप्त कर ली थी।
गंगा, यमुना अथवा सरयू का किनारा हो, फूस के मंच पर सिर्फ मृगचर्म के सहारे शरीर के कुछ अंगों को वे ढक लेते थे। चाहे प्रचण्ड गर्मी का मौसम हो या माघ की कड़कड़ाती सर्दी, बाबा दिंगम्बर वेष में मंच पर विराजमान रहते थे।
बाबा की लम्बी जटायें, घनी-घनी दाढ़ी-मूंछें, ज्योति बिखेरने वाली बड़ी-बड़ी आँखें, उन्नत ललाट, श्यामवर्ग, झुका हुआ शरीर, लम्बे लम्बे बाहु तथा मुखमण्डल पर सदा दया, करुणा, शांति एवं निर्भयता का गुण भक्तों के लिए चुम्बक की भाँति आकर्षण का केन्द्र था। ऐसे महान् तत्त्वज्ञानी सिद्ध पुरुष थे देवराहा बाबा। अतः आगन्तुक व्यक्ति के मन में बह रहे सुख-दुःख के मनोवेगों को पहचान लेना उनके लिए सुगम ही था। ऋद्धि और सिद्धि जिनके चतुर्दिक मंडराती हों, जिनके इशारे पर चलती हों, उनके लिए किसी का संकट दूर करना एक सरल कार्य था।
पंचतत्व का आकलन जिनकी जिह्वा पर हो, वर्तमान, भूत और भविष्य का जिसे पूरा ज्ञान हो और वर्णमाला के एक-एक अक्षर में जिन्हें ब्रह्म के दर्शन होते हों, उनसे परिभाषित शब्द और स्वर से ब्रह्म का जिन्हें बोध होता हो, ऐसे वे एक महान सिद्ध योगी थे और योगी के लिए ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ वह देख न सके। उनके दिव्य चक्षु समष्टि का आभास कराते रहते थे। मानव शरीर और उसमें निहित बहत्तर (72) हजार नाड़ियों का ज्ञान, इड़ा, पिंगला और सुषुम्णा की स्थिति, उन्हें अपने वश में करने की अद्भुत शक्ति, कुण्डलनी जागरण, षट्चक्र-भेदन, सहस्खार में प्राण वायु का संवहन, परमात्म एवं जीवतत्त्व का आरोह और अवरोह, अनाहत नाद का आनन्द प्राप्त करना बाबा के लिए सुलभ था। योगिराज की अद्भुत स्मरण शक्ति, उनके दर्शकों के लिए आश्चर्य का विषय बन जाती थी। सैकड़ों वर्ष की बातों का उल्लेख, किसी की वंश परम्परा तक की जानकारी देना, देश-विदेश के किसी भी कोने के वन, पर्वत, नदी, तीर्थ, वहाँ के निवासियों, उनकी परम्पराओं की तत्काल जानकारी सामान्य बुद्धि वाले दर्शकों को चमत्कृत कर देती थी। उनके शब्द, उनके वाक्य, अन्तरात्मा की आवाज से जुड़े होते थे। उनके स्वरब्रह्म की सत्ता का बोध कराते थे। उनकी दृष्टि मानव चेतना पर नियंत्रण रखने की क्षमता रखती थी। ब्रह्म विद्या से युक्त उनकी ज्योति, उनके शरीर से निकलने वाला ज्योतिपुंज सहज ही तत्व का बोध कराता था।
बाबा के दर्शन के लिए देश और विदेश से प्रतिवर्ष लाखों लोग आते थे। उनके दर्शन करने वालों में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई सभी धर्मों के मानने वाले लोग थे। वे दया की मूर्ति थे। उनमें हरि और हर दोनों प्रकार के अधिष्ठानों का अस्तित्व था और उनके दर्शन मात्र से मनुष्य अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती थी तथा प्रतिकूल स्थितियों का परिहार होता था। वे सभी धर्मो का आदर करते थे। गेन्दा के फूलों को फल बनाना, सुदूर स्थित भक्तों को मंच पर बैठे-बैठे क्षण मात्र में सहायता पहुचाना उनके लिये सहज कार्य था। उन्होंने अपने आशीर्वाद से अनेक व्यक्तियों को असाध्य बिमारियों से अच्छा किया, कई मृतकों को जीवित किया। कितने निःसंतानों को सन्तान प्रदान की और अनेक साधकों को आत्मज्ञान कराया। वे सनातन धर्म, भारतीय संस्कृति का उपदेश देते और मानव कल्याण की भावना को जगाते। सत्य, अहिंसा, गोरक्षा और राम नाम जप में चित्त लगाने को ही वे प्रमुखता देते थे।
योगी का संकल्प अमोघ होता है और वह ईश्वर के संकल्प के समान ही शक्तिशाली होता है। उसके संकल्प का ईश्वरीय नियमों से कभी विरोध नहीं होता। वह अपनी योग-शक्ति से पदार्थों के संघटन को बदल सकता है और पदार्थ के धर्म में सभी विपर्यय ला सकता है। पदार्थों के परमाणुओं से किसी भी पदार्थ का संयोजन या वियोजन उसके लिए एक सरल कार्य है। परन्तु ये सब सिद्धियाँ साधना मार्ग में विघ्नस्वरूप हैं। योगी का सर्वज्ञ भाव भी उसके लिए विघ्न ही है। योगी के संकल्प में जबतक अस्मिता भाव विद्यमान रहेगा, तभी तक वह किसी पदार्थ अथवा शरीर का निर्माण करेगा। जब योगी अपने स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म शरीर से विश्व भ्रमण करता है, उस समय उसके स्थूल शरीर की रक्षा उसके अस्मिता भाव से ही होती है।
संत कभी भी चमत्कार नहीं करते, परन्तु उनके सहज कर्म ही स्वयं चमत्कार हो जाते हैं। अपनी इन्हीं मान्यताओं के कारण योगिराज ने अपनी विभूतियों का कभी प्रदर्शन नहीं किया और न कभी बाजीगरी दिखलाई। उनके सान्निध्य में प्रतिपल चमत्कार स्वतः घटित होते रहते थे और भक्तों के जीवन में मंगल-विधान होता रहता था। बाबा के शिष्यों ने महाराज जी को कभी निद्रा की अवस्था में नहीं देखा। गुडाकेश योगी ही निद्रा को वश में कर सकता है। महाभारत में गुडाकेश का उल्लेख मिलता है। अपने उपदेशों के दौरान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि पार्थ! गुडाकेश भव अर्थात् निद्रा पर विजय प्राप्त करो। ऐसा योगी चौबीसों घंटे ध्यानावस्था में ही रहता है। अर्थात् आत्मा (सूक्ष्म) परमात्मा (ब्रह्म) के चिंतन मग्न रहता है। केवल बाह्य स्वरूप गतिमान रहता है, जिससे योगी इस लौकिक संसार से सम्पर्क बनाये रखता है। बाबा अष्टांग योग एवं पातंजल योग धारण किये थे। इन योगिक क्रियायों के साथ योगिराज गुडाकेश की स्थिति में पहुँच चुके थे। पातंजल योग धारण करने वाला योगी केवल प्राणवायु से ही जीवित रहता है। ऐसी अवस्था में साधक की जीभ उल्टी होकर गले के अन्दर तक चली जाती है और जीभ का अगला भाग वायु के साथ चन्द्र कमल रस (जीवनी शक्ति) का पान करता है।
ऋतुओं का उनके शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था— न शीत का, न ताप का शरीर के लिए आवश्यक शीत-ताप वे अपने भीतर की ऊर्जा से ही प्राप्त करते थे। वे अनिकेत थे, दिगम्बर थे और उन्हें सोते और खाते किसी ने नहीं देखा। भक्तों ने सुदूर स्थित अपने घरों में संकट की घड़ी में बाबा की उपस्थिति का अनुभव किया है और उनसे निर्देश पाकर आपदाओं को निरस्त होते देखा। भक्तों ने एक ही साथ उन्हें कई स्थानों पर देखा है। कभी-कभी उन्हें अन्तर्धान होते और प्रकट होते भी देखा है। आवश्यकता होने पर वे गगनचारी भी बन जाते थे। वे सम्पूर्ण रूप से सिद्ध थे और थे एक महायोगी नेपाल, तिब्बत और हिमालय की गुफाओं में दीर्घ अवधि तक उन्होंने तपस्या की थी।
श्रीबाबा प्रायः मूसल स्नान करते थे सीधे पानी में डुबकी लगाना और निकलना। अनेक भक्तों ने नदी के जल को उनके साथ ऊपर उठते और गिरते देखा है। वे कई घंटों तक जल के भीतर रह जाते थे। विध्याचल के निकट भी काफी पहले से एक आश्रम है, जहाँ योगिराज रहते थे। लार रोड के निकटस्थ मइल चौराहे के पास श्रीबाबा का अवस्थान भगवती विन्ध्यवासिनी के आदेश से हुआ था। ऐसा कहा जाता है। उन्हें कहीं भी शरीर से आना-जाना नहीं पड़ता था। इस तरह ज्ञानगंज के सिद्ध योगियों की विभूतियों का जैसा विवरण स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस ने दिया है, योगिराज देवराहा बाबा में वैसी सारी विभूतियाँ विद्यमान थीं।...
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